स्वदेशी शिक्षा से होगा बेहतर चरित्र का निर्माण

ऋषिकेश राज

ऋषिकेश राज

KKN डेस्क। जिस प्रकार संसाधन को तकनीक की मदद से उपयोग में लाया जाता हैं। ठीक उसी प्रकार मानव को शिक्षा प्रदान करके उसको वास्तविक दुनिया के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है। क्योंकि, शिक्षा ही मनुष्य को व्यावहारिक, सामाजिक और नैतिकता जीवन को तरास कर उसको जीने के लायक बनाता है। दुनिया की अलग-अलग संस्कृतियों में शिक्षा ग्रहण करने का उद्देश्य अलग-अलग हो सकता हैं। कहीं व्यावसायिक शिक्षा पर बल दिया गया है, तो कहीं व्यावहारिक शिक्षा पर और कहीं सैन्य शिक्षा को महत्व दिया गया है। धार्मिक और सांस्कृतिक शिक्षा का अपना महत्व रहा है। परंतु हमारे देश में शिक्षा के इतिहास का अध्ययन करने पर यही प्रतीत होता है कि नैतिक शिक्षा पर विशेष बल देना ही हमारी परंपरा रही है। अन्य शैक्षणिक उद्देश्यों की पूर्ति को भी नैतिक शिक्षा के बाद का दर्जा प्राप्त था। परंतु सदियों तक गुलामी की जंजीर में बंधने का प्रतिकूल प्रभाव हमारी शिक्षा तंत्र पर भी पड़ा। धीरे-धीरे हम अपनी परंपरागत शैक्षणिक व्यवस्था की जगह विदेशी शैक्षणिक प्रणाली के आगोश मे समाते चले गये।

वर्तमान में पश्चात्य शिक्षा का सर्वाधिक प्रभाव हमारी शिक्षा पर देखने को मिलता है। वैश्वीकरण की दौड़ में यह कई तरह से हमारे लिए उपयोगी सिद्ध हो रहा है। परंतु, इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी दिखने लगा है। पहले के जमाने में शिक्षा ग्रहण करने के बाद मनुष्य में नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक, एवं भावनात्मक बोध का स्तर देखा जाता था। उसमें आज कमी देखने को मिल रहा है। मौजूदा दौर में शिक्षा देने वाले हो या शिक्षा ग्रहण करने वालें। नैतिक चेतना का तेजी से ह्रास हुआ है। कुल मिलाकर लोग व्यावहारिक कम और व्यावसायिक अधिक होने लगे हैं। लिहाजा, पश्चात्य शिक्षा की अमिट छाप स्पष्ट रूप से दिखई पड़ने लगा है। आजकल अभिभावक भी अपने बच्चों को विदेशी शिक्षा देकर खुद को गौरवान्वित महसूस करने लगें हैं। अक्सर ऐसे लोग अपनी परंपरागत शिक्षा प्रणाली को हीन दृष्टि से देखतें हैं। अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा आज हमारे समाज में समाजिक सम्मान का प्रतीक बन चुकीं है। हिन्दी या अन्य देशी विषयों की शिक्षा को उसके इर्द-गिर्द भी नहीं है।

पश्चात्य शिक्षा को ग्रहण करके जब हमारे बच्चे पश्चात्य संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करने लगते हैं। आश्चर्य की बात है कि ऐसे बच्चो से अभिभावक अपनी संस्कृति और परंपरा की उम्मीद करते हैं। यदि बच्चे अपने बचपन से युवावस्था तक पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति से जुड़े रहेंगे तो जाहिर है उनका व्यवहार उसी के अनुरूप होगा। यदि उन्हें सामुहिक परिवार की परंपरा, हिन्दी एवं अन्य घरेलू भाषा, धार्मिक शिक्षा, नैतिक मूल्यों से दूर रखा जाएगा तो फिर आगे चलकर उन्हीं बच्चों में अपने परिवार से मोहभंग, विदेशी परंपरा अर्थात नशापान, नास्तिक विचारधारा, असामाजिकता एवं बनावटी दुनिया के प्रति आकर्षण देखने को मिलेगा ही। आज ऐसा ही दिख रहा है। पश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से ही आज हमारे देश में घरेलू हिंसा, समाज में स्थापित मूल्यों के प्रति उदासीनता, जग कल्याण के बजाय निजी कल्याण पर विशेष बल के साथ-साथ, छल-प्रपंच की अधिकता, लूट, अपहरण, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसे संगीन मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है। यह चिंता की विषय है। इसलिए आज पुनः अपनी परंपरागत एवं संस्कृत शिक्षा की ओकर वापस रूख करने की जरूरत महसूस होने लगी है। समय रहते समजा गंभीर नहीं हुआ तो स्थिति और भी भयावह हो जायेगी और यह किसी के हित में नहीं होगा।   -यह लेखक का व्यक्तिगत विचार है।

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